क्या कुछ भी तुम्हे अब आमंत्रित नहीं करते ?

जुलाई 12, 2007

यदि बन सको तो बनो

पर्वतों की भाँति औघड़

नदियों की भाँति पारदर्शी

और आदिम हवाओं की भाँति अनागरिक

धरती के काव्य-संकलन जैसे

ये वन,उपवन,पर्वत

साम्राग्यियों के चीनांशुकों से

ये धनखेत

कृष्ण-आकुल गोपिका नेत्रों जैसे

ये श्यामल मेघ

क्या कुछ भी तुम्हें अब आमंत्रित नहीं करते ?

-श्रीनरेश मेहता


भवानी भाई की प्रेरक – पंक्तियाँ

जुलाई 10, 2007

साधारणत: मौन अच्छा है…

किन्तु मनन के लिये !

जब शोर हो चारों ओर, सत्य के हनन के लिये !

 तब तुम्हे अपनी बात,

ज्वलंत शब्दों में कहना चाहिये !

 सिर कटाना पडे़ या न पडे़

तैयारी तो उसकी होनी चाहिये.


आपके ह्र्दय-द्वार पर….दिनकर सोनवलकर

जुलाई 1, 2007

न जाने क्या बात है कि हमारा मालवा अपनी गुदड़ी के लालों को वह मान देता ही नहीं जिसके वो अधिकारी होते हैं.ऐसे ही एक सु-कवि दिनकर सोनवलकर आज भाषा-संवाद की जाजम पधारे हैं दिनकर जी ने हिन्दी ग़ज़ल पर भी लाजवाब काम किया है (जिसे नीरज जी गीतिका कहते हैं )मराठी के यशस्वी कवियों के अनुवाद भी दिनकर जी ने किये है.कुछ बेहतरीन गीन आकाशवाणी इन्दौर से प्रसारित हुए हैं.दो रचनाएं पढ़िये और महसूस कीजिये इस विलक्षण क़लमकार कारीगरी को.ये रचनाएं १९७० यानी अब से ३७ बरस पहले हिन्दी की आदरणीय पत्रिका वीणा में प्रकाशित हुईं थीं…दिनकर सोनवलकर…

एक सूचना…

कला के इस मंदिर में

झुककर प्रवेश कर.

इसलिये नहीं कि

प्रवेशद्वार छोटा है ?

और तेरी ऊँचाई से

टकरा कर टूट जाएगा .

नहीं !

आकाश ही उसका द्वार है…विराट

यहाँ बौने ही लगेंगे तेरे ठाठ-बाट.

इंसानियत के आगे झुकना

सबसे बडी़ कला है

उन्ही को कर प्रणाम

इसी में छुपे हैं….

रहीम और राम.

परंपरा बोध…..

मुझे क्या ज़रूरत है

विदेशी स्टंटों से चमकृत होने की ?

जिसकी हों अपनी जड़ें,वही औरों के भरोसे जिये.

क्या बताएगा गिन्सबर्ग मुझ कबीर पंथी को ?

पहले कह गया है गुरू हमारा

जो घर फ़ूँके आपनो सो चले हमारे साथ

तुम पहनो अपने तन पर

उधार ली हुई फ़ाँरेनमेड पोषाकें

हम तो जन्म से ही नंगे हैं..नंगे अवधूत

मर्लिन मूनरो या मारिज़ुआना

दोनों हदों से बेहद हो चुके हैं हम .

‘हम न मरिहै संसारा’

बीटनिक,बीटल्स या हिप्पी,सभी हैं माया का पसारा.

इस ठगिनी को खू़ब जानते हैं हम .

तुम नये जीवन-दर्शन के नाम पर

बडी़ पुरानी विकृतियों को उछालत हो

रचते रहो आँप या पाँप

हम तो बस चुपचाप

ज्यों की त्यों धर देते हैं चदरिया

विद्रोह को पतिक्षणं जीते हुए !


मेरे दोहे

जुलाई 1, 2007

कविता मेरा इलाक़ा नहीं लेकिन विरासत में मिला संस्कार है.अनुभूति या अनुभव के स्तर पर कभी कभी कुछ भाव उमड़ते हैं वैसे ही जैसे बिन मौसम बादल बरसते हैं.मेरा मानना है कि हर व्यक्ति के मन में संगीत और कविता का अंडर-करंट होता है और वक़्त-बेवक़्त वह अभिव्यक्त हो ही जाता है.कविता-गीत-संगीत मुझे विरसे में वैसे ही मिले हैं जैसे मुझे मेरा जिस्म और ख़ून.और इसलिये यदि किसी पंक्ति पर यदि आपकी दाद मिलेगी तो पूरी ईमानदारी से मै उसे  मेरे बाप-दादाओं की यश की बही में लिख देना चाहूंगा.मुलाहिज़ा फ़रमाएं

अहंकार से मन भरमाया

वाणी दूषित रोगी काया.

 

दुर्लभ जन्म मिला मानव का

इसको क्यों फ़िर क्षुद्र बनाया.

 

निहित स्वार्थ में जिया है जीवन

दृष्टी -वृत्ति मन कैसा पाया.

 

क्षण क्षण कितने हुए निरर्थक

अर्थ न जाना व्यर्थ कमाया.

 

स्वीकारो श्रद्धा-अनुनय यह

प्रेम-दान दो शीतल छाया.

 

क्षमा-पात्र यह द्वार तुम्हारे

एक अकिंचन लेकर आया.

संजय पटेल


प्रेम करने के लिये समय निकालें

जून 15, 2007

जीवन और चिंतन को उर्जा से भर देने वाली एक आयरिश कविता आपके साथ बांट रहा हूं.

वक़्त अपनी रफ़्तार से आगे जा रहा है.हमें इस बात का अहसास होना चाहिये कि सिर्फ़ वक़्त ही नहीं बीत रहा उसके साथ हम भी बीत रहे हैं. ये कविता हमारे सीमित समय में से बहुत कुछ असीमित और अपने लिये करने को प्रेरित करती है.ये भी सनद रहे कि लिखा तो सब अच्छा ही जा रहा है ..या गया है….पढा़ भी अच्छा जा रहा है …लेकिन क्षमा करें मनन और आचरण के स्तर पर हमसे बड़ा हिप्पोक्रेट न मिलेगा (जी… मैं भी शामिल हूं इसमें)

शब्द संपदा तो एक सुरभि बन कर हमारे पास आते हैं , किताबों,ब्लाग्स,पत्रिकाओं या बुज़ुर्गों की सीख से रूप में ..लेकिन हम ही शायद चूक जाते हैं उस गंध का आनन्द लेने से. मै निराशवादी नहीं हूं..क्योंकि उम्मीद पर ही तो टिकी है सारी दुनिया..चलिये इसी कविता के साथ जीवन में एक नए,सुरीले,चैतन्य सोच को विकसित करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है .आइये पढिये ये आइरिश कविता…..

काम के लिये समय निकालें

यह सफलता का मूल्य है.

 

चिंतन के लिये समय निकालें

यह शक्ति का स्त्रोत है

 

खेल के लिये समय निकालें

यह अक्षय यौवन का रहस्य है

 

अध्ययन के लिये समय निकालें

यह आनंद का मार्ग है

 

स्वप्नों के लिये समय निकालें

यह उत्कर्ष का पहला क़दम है

 

प्रेम करने के लिये समय निकालें

यह दिव्यता की अनुभूति है

 

अपने चहुँओर देखने के लिये समय निकालें

स्वार्थों के लिये दिन बहुत छोटा है

 

उल्लास के लिये समय निकालें

यह आत्मा का संगीत है.

 

यह आइरिश कविता पढ़ने के बाद आपके आगामी दिन सुदिन बीतें.

हां एक गुज़ारिश …आपको वाक़ई लगे कि इन शब्दों में सकारात्मक संदेश हैं 

 तो और मित्रों और परिजनों के बीच इन शब्दों को संक्रामक बनाएं.खा़सकर नौजवानों में.वे ही हमारी उम्मीद हैं ..उन्हीं से हमें आस है..वे हमारा विश्वास हैं

टीप : कवि का नाम मैं ढूंढ रहा हूं कई दिनों से…इसमें आपकी मदद का स्वागत है.


गुरूदेव की वैश्विक प्रार्थना

जून 15, 2007


 

देश की माटी देश का जल

हवा देश की देश के फल

सरस बनें प्रभु सरस बनें

 

देश के घर और देश घाट

देश के वन और देश के बाट

सरल बनें प्रभु सरल बनें

 

देश के तन और देश के मन

देश के घर के भाई बहन

विमल बनें प्रभु विमल बनें

अनुवाद देश के शीर्षस्थ कवि पं भवानीप्रसाद मिश्र ने किया है.